Vitragvani - Gurudev Kanjiswami's Pravachans, Jeevan Parichay, Prasangik Pravachans on Digamber, Jain Philosophy
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Samaysaar Shashtra Parampara

भगवान महावीरस्वामी

समय – चतुर्थ काल

वर्तमान शासन नायक भ. महावीरस्वामी ने ३० वर्ष की आयु में संसार से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की और १२ वर्षों कि कठिन तपस्या के बाद केवलज्ञान प्राप्त करके ३० वर्ष तक समवसरण सहित विहार करके दिव्यध्वनि द्वारा जिनधर्म का प्रचार-प्रसार किया और कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन ७२ वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई और वे २४वें तीर्थंकर कहलाये। उन्हीं के द्वारा उद्घोषित हुई वाणी गणधरों, आचार्यो और अनेक महान ज्ञानीजनों द्वारा आज भी सभी जीवों का मुक्ति मार्ग प्रशस्त कर रही है।

भगवान सीमंधरस्वामी

समय – विद्यमान, स्थान - विदेहक्षेत्र

वर्तमान में विदेह क्षेत्र के पांच मेरु मे सें सुमेरु के संबंधित नगरी में भ. सीमंधरस्वामी विराजमान हैं। सुमेरु पर्वत की पूर्व दिशा में सीता नदी के पास उनका स्थान हैं और उनके पिता का नाम श्रेयांस तथा माता का नाम सत्या हैं, आज भी १०० इन्द्रों और गणधरों की उपस्थिती में उनकी दिव्यध्वनि से भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग प्राप्त हो रहा हैं।

आचार्य कुंदकुंददेव – (समयसार ग्रंथकार)

समय – ई.स. पूर्व प्रथम शताब्दी, वि.सं. पूर्व प्रथम शताब्दी.

ग्रंथ का नाम – समयपाहुड. भाषा – प्राकृत

परम आध्यात्मिक संत आचार्य कुन्द्कुन्ददेव को भ. महावीर एवं गौतम गणधर के ठीक बाद मंगल के रुप में स्मरण किया जाता हैं। उन्होनें ११ वर्ष की आयु में मुनिधर्म अंगीकार किया तथा ८४ पाहुडों एवं अनेकों ग्रन्थों की रचना की। आचार्य कुन्दकुन्द सदेह विदेहक्षेत्र गये थे व वहां पर आठ दिन रहकर साक्षात परमात्मा सीमंधरदेव की वाणी को सुना, और वहां से आकर उन्होंने भव्यजीवों के कल्याण के लिये समयसार आदि महानतम ग्रंथो की रचना की।

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आचार्य अमृतचंद्रदेव – (टीकाकार)

समय – ई.स. ९६२-१०२२, वि.सं. १०१९

टीका का नाम – आत्मख्याति. भाषा – संस्कृत (गद्य, पद्य)

आध्यात्मिक सन्तों में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद यदि किसी का नाम लिया जा सकता हैं तो वे हैं आचार्य श्री अमृतचन्द्र। उन्होनें कम लिखकर अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की हैं। आपकी समयसार पर कि गई आत्मख्याति टीका अध्यात्म की सर्वोच्च टीका के रुप में सुप्रसिद्ध हैं, आपने अन्य अनेकों ग्रन्थों की टीकायें भी लिखी हैं।

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आचार्य जयसेन – (टीकाकार)

समय – ई.स. ११००-१२००, वि.सं. ११५६

टीका का नाम – तात्पर्यवृत्ति. भाषा – संस्कृत (गद्य)

आ. जयसेन आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार हैं। वे मुलसंघ के विद्वान आचार्य सोमसेन के शिष्य थे। जयसेन मालुसाहु के पौत्र व महीपति साहु के पुत्र थे। उनका बचपन का नाम चारुभट्ट था। चारुभट्ट जब दिगम्बर मुनि बने तब उनका नाम जयसेन हो गया। आपकी कुल तीन रचनाएं प्राप्त होती हैं और तीनों का नाम “तात्पर्यवृत्ती टीका” ही हैं।

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आचार्य शुभचंद्र – (टीकाकार)

समय – ई.स. १५१६-१५५६, वि.सं. १५७२

टीका का नाम – परम अध्यात्म तरंगिणी. भाषा – संस्कृत (पद्य)

इनके गुरु का नाम विजयकीर्ति हैं, इन्होनें ज्ञानभुषण और विजयकीर्ति इन दोनों से ज्ञानार्जन किया था। इन्होनें न्याय शास्त्र के साथ-साथ व्याकरण, छन्द, काव्य व देशी भाषाओं में भी पाण्डित्य प्राप्त किया था। इन्हें त्रिविधि विधाधर और पट्ट भाषा कवि, चक्रवर्ती आदि उपाधियां प्राप्त थी। इनकी हिन्दी व संस्कृत भाषा में कुल ३० रचनायें मिलती है।

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पंडित राजमलजी पांडे – (टीकाकार)

समय – ई.स. १५७५, वि.सं. १६३१

टीका का नाम – बालबोध. भाषा – हिन्दी (ढूंढारी)

पंडित राजमलजी पांडे जयपुर के निकट ’विराट’ नगर में मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में हुए, और शाहजहां के काल तक रहे। इनकी प्रमुख टीका का नाम बालबोधिनी हैं जो समयसार ग्रन्थ पर आचार्य अमृतचंद्र सुरि कृत ’आत्मख्याति’ नामक टीका में आगत पद्यों पर हैं, जिन्हें ’कलश’ की संज्ञा दी गयी हैं। इन्हीं के द्वारा रचित टीका को पढकर कवि बनारसीदासजी को उसका पद्य भाषा में विस्तार करने का भाव हुआ।

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पंडित बनारसीदासजी – (पद्यकार)

समय – ई.स. १६३६, वि.सं. १६९२

टीका का नाम – नाटक समयसार. भाषा – हिन्दी (पद्य)

बीहोलिया वंश की परंपरा में श्रीमाल जाति के अंतर्गत बनारसीदास जी का जन्म एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। पंडितजी की प्रतिभा इतनी प्रखर थी कि वह संस्कृत के बड़े-बड़े ग्रंथों को आसानी से समझ लेते थे। वि.सं.1680 में कवि बनारसीदास जी को पंडित राजमल जी कृत समयसार की हिंदी टीका बालबोधिनी प्राप्त हुई। इस ग्रंथ का अध्ययन करने से उन्हें दिगंबर संप्रदाय की श्रद्धा हो गई। कुछ समय के बाद गोम्मट्सार ग्रंथ पर प्रवचन सुनकर दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी बन गए तथा कवित्त शैली व स्वाध्याय की प्रगाढता द्वारा उनने समयसार को सरल पद्य रुप में सबको समझाने के लिये नाटक समयसार की रचना की।

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पंडित जयचंदजी छाबडा – (भावार्थ वचनिकाकार)

समय – ई.स. १८०४, वि.सं. १८६०

टीका का नाम – समयसार भाषा वचनिका. भाषा – हिन्दी (ढूंढारी)

इनका जन्म जयपुर से लगभग ४५ कि.मी. की दुरी पर स्थित फ़ागी ग्राम मे हुआ था। इनके पिता का नाम मोतीचन्द व गोत्र का नाम छाबडा था। यह गोत्र खण्डेलवाल जाति के अन्तर्गत आता हैं। इनके पिता पटवारी थे। ११ वर्ष की आयु तक आपको धर्म की रुचि नहीं थी, लेकिन उसके बाद से आपके अन्तिम समय तक जिनमार्ग मे जो प्रीति लगी हैं वह आपके रचनाओं से पता चलता हैं। आपने सबको सुगम देशभाषा में समयसार ग्रंथ की भावार्थ रुप वचनिका लिखी।

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पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी – (प्रवचनकार)

समय – ई.स. १८९०-१९८०, वि.सं. १९४६-२०३७

समयसार के उपर १९ बार सभा में प्रवचन. भाषा – गुजराती, हिन्दी

इनका जन्म विक्रम संवत १९४६ वैशाख सुद दुज रविवार के दिन सौराष्ट्र के उमराला नाम के गांव मे हुआ था। उन्होनें युवावस्था में श्वेताम्बरी दीक्षा धारण की और उनके नियमों का पालन करने लगे, लेकिन अंतरंग में यह सब क्रियायें करते “कुछ गलत हो रहा हैं” ऐसा अनुभव होता था। फ़िर संवत १९७८ के फ़ाल्गुन मास में दामनगर गांव में सेठ दामोदर ने उन्हें श्री समयसार जी शास्त्र दिया। शास्त्र को देखते ही उनके मुख से सहज ही निकला कि “सेठ , यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है। जैसे-जैसे शास्त्र का अध्ययन करते गये उन्हें जैन सिद्धांतो का सही ज्ञान होने लगा और उन्होनें संवत १९९१ चैत्र शुक्ल १३ मंगलवार महावीर जयंति के दिन सोनगढ में एक घर में पार्श्वनाथ भगवान के चित्रपट के समक्ष मुखपट्टी का त्याग करकें स्वयं को सनातन दिगम्बर जैनधर्मं के व्रती श्रावक के रुप में घोषित कर दिया। उसके बाद उन्होनें अनेको शास्त्रों का स्वाध्याय व प्रवचन करना प्रारंभ कर दिया, जिससे एक नई क्रांति की शुरुआत हुई। पूज्य गुरुदेवश्री ने सभा में १९ बार समयसार पर प्रवचन कर समयसार को घर-घर में पहुंचा दिया तथा सब जीवों को आत्मा का स्वरुप व कल्याण का मार्ग बताया।

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